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Showing posts from May, 2020

स्त्री

संसार की अज़ब रचना है स्त्री, एक क़िताब की तरह होती हैं स्त्री। सभी की अपनी-अपनी जरूरतें, ज़िन्दगी में बन जातीं है स्त्री। कोई न समझ सके वो, गणित वाली क़िताब हैं स्त्री। जिसकी जैसी ज़रूरत, बैसी क़िताब हैं स्त्री। कभी नीरस सा उपन्यास, कभी प्रेमचंद की कहानी है स्त्री। कभी शेक्सपीयर का ड्रामा, कभी कौटिल्य का अर्थशास्त्र हैं स्त्री। किसी के लिए रद्दी वाली, फ़िजूल की क़िताब हैं स्त्री। किसी के लिए ज़िन्दगी के, हसीन और रंगीन पन्ने हैं स्त्री। किसी के घर के पुस्तकालय में, संजोकर रखी क़िताब हैं स्त्री। किसी बड़े लेखक के कविता के, सुन्दर और मनमोहक लफ्ज़ हैं स्त्री। कुछ के लिए मंदिर में रखी, पवित्र वेद पुराण की क़िताब हैं स्त्री। किसी के लिए पाक क़ुरान, और बाईबल की क़िताब हैं स्त्री। सच कहें तो संतो की वाणी, कबीर के दोहे जैसी सरल हैं स्त्री। पढ़ता नही कोई मन की आँखों से, पढ़ने पर समझ में आती हैं स्त्री। जो भावनाओं को समझता है इनकी, जीवन में उसके उतर जातीं हैं स्त्री। छुए तन में एक अनछुआ मन लिए, किसी कोने में पढ़ी क़िताब हैं स्त्री। (मान सिंह कश्यप रामपुर उ०प्र०)

मनुष्य और इंसानियत

अन्जान लोगों की मदद का, अभी अरमान बचा है। कितनों के अंदर अभी भी, एक नेक इंसान बचा है। अज़ब-गज़ब दुनिया का, यहाँ कानून बचा है। देश के वादे वाला नेता, अब यहाँ बेईमान बचा है। मुश्किलों में फ़ेर लीं , गरीबों से सभी ने निग़ाहें। अपने शहरों में अब, हर शख़्स अन्जान बचा है। करोड़ों हैं इंसान यहां, उनका कोमल सा हृदय, इस बेरुख़ी के देश में, अब तक सोनू जैसा इंसान बचा है। माना कि इस महामारी में, बहुत परेशानियां हैं मगर। लोगों में कुछ तो उम्मीद वाकी है, कुछ तो अरमान बचा है। क्यों दिखाते हो गरीबों को, उनके गरीब होने डर। इन गरीबों में भी अभी, बहुत सा अरमान बचा है। (मान सिंह कश्यप रामपुर उ०प्र०)

मज़बूर-मजदूर करोना वायरस का मजदूरों पर प्रभाव

मज़बूर-मजदूर माना कि मज़दूर थे , अपने शहर से दूर थे। घर चलाने के लिए वो, दूर जाने को मज़बूर थे। बेरोज़गारी की बजह से, अपने परिवार से दूर थे। मालिक और नेता सभी, अपनी ख़ुशी में मग़रूर थे। आख़िर कब तक भटकते रहेंगे, राजनीति के अंधियारों में। सूरज जैसी रौशनी भर दो, कोई तो इनके जीवन के सितारों में। देखें कोरोना पर और कविता  kavitaunsune.blogspot.com पर https://kavitaunsune.blogspot.com/2020/06/blog-post_6.html स्याह रात भर कितनों की ज़िंदगी, मचलती है सड़कों पर नंगे बदन। इनके परिवारों से मिलाकर इन्हें, कोई तो कर दो इनको मग्न। क्यों ग़रीबी मुक्त भारत का नारा, नेता देतें हैं अनेक सेमिनारों में। सपनों में अमीर होते-होते गरीब, बिक चुकें है पथ के बाज़ारों में। एक ज़माना गुज़र गया उन्हें, घर का बना खाना खाने में। माँ के साथ रात को बैठकर, जीवन की सारी बातें बतलाने में। आज के कठिन दौर में, शहरों से निकाला मक्कारों ने। बेबसी में मज़बूर-मज़दूर, चल दिए पैदल ही अंगारों में। कब तक थमेगा ज़िन्दगी का दौर, कब तक कितना पैदल चलेंगे और। इनकी भी मजबूरियों पर, साहब क्यों नही करते गौर।

शहीद जवान(विदाई)

कौन कहता है कि, बेटे विदा नहीं होते। जब होते हैं विदा, तब सभी हैं रोते। बेटियाँ तो विदा होकर, पा लेती हैं दूसरा परिवार। बेटे जब विदा होते हैं, तो छोड़ जाते है संसार। कौन कहता है कि, बेटे विदा नहीं होते। बेटियों का दो घरों पर, हो जाता है अधिकार। बेटे सरहद पर रात भर, घर आने का करते हैं विचार। माना कि बेटियों के आने से, घर जाता है चहक। वर्षों बाद बेटों के आने पर भी, गली,गांव,आँगन जाता है महक। कौन कहता है कि, बेटे विदा नही होते। बेटियों की विदाई से, खुश होता है परिवार। बेटों की विदाई में, टूट जाता है परिवार। बेटियों को पीहर में, मिलता है स्नेह और प्यार। बेटों को सरहद पर, मिलते हैं हथियार। कौन कहता है कि, बेटे विदा नहीं होते। बेटियों ने अगर घर को, खुशियों से सजाया। बेटों ने भी देश की रक्षा में , अपनी जान को है गवाया। बेटियाँ तो त्यौहार को, परिवार संग है मनाती। बेटों की तो रातों की, नींद है उड़ जाती। कौन कहता है कि, बेटे विदा नहीं होते। कभी-कभी बेटे भी, ऐसे है विदा होते। घर वालों चेहरा भी, नही हैं दिखा पाते। कुछ सोते हुए, सोते ही हैं रह जाते। कु

. मेरी माँ

मेरी माँ मेरी नीदों के ख्याबों में, तुम छुपी हो माँ। मेरे लबों की हंसी में, तुम छुपी हो माँ। मेरे दिल की धड़कन में, तुम बसी हो माँ। मेरे ख्याबों का छोटा सा, संसार हो तुम माँ। मेरे जीवन का सम्पूर्ण , आधार हो तुम माँ। इस सृष्टि का , संसार हो तुम माँ। इस सुन्दर दुनिया को, तुमने मुझे दिखाया माँ। दुआओं के साथ तुम्हारी, मैं आगे बढ़ पाया माँ। दिन तुम्हारा आज भी, रसोई में बीतता है माँ। खाना तुम्हारे हाथ का, आज भी याद आता है माँ। थक हार जब भी घर आता था, आँचल तुम्हारा ही पाता था माँ। अब तो बस याद ही आती है, तुम्हारी याद बहुत रुलाती है माँ। कल ड्यूटी से देर से आया था, खाना नही खाया था माँ। याद तुम्हारी तब आयी, रातों को मेरे लिए खाना बनाया था माँ। तुम हिंदी जैसी सरल, स्वभाव थी माँ। चटनी रोटी भी तुम्हारे हाथ की, बहुत मुझे भाती थी माँ। कभी-कभी अब बिना खाए,  सो जाता हूं माँ। याद तुम्हे करके , कितनी बार रो जाता हूं माँ। कितने भी दुःख दर्द हों, चुपचाप तुम सह लेती हो माँ। लगने पर मुझे चोट, छुपके तुम रो लेती हो माँ। मेरे खातिर कितनी ही,  रातों को तुम जागी हो मा

दिल की बात

अगले जन्म तुम मेरी बनना, इस आस में जीवन बीत रहा। अपने मन को मारकर, हृदय नए सपनों को सींच रहा। गुज़र रहा है जीवन अब तो, बस दूर से प्रीत निभाने में। अपने सपनों में हर दिन तेरा, सुन्दर प्रतिबिम्ब बनाने में। मेरा हृदय अब मुझसे ही, मुझको है अब जीत रहा। अगले जन्म तुम मेरी बनना, इस आस में जीवन बीत रहा। न मुझको दुःख किसी बात का होगा, उम्मीदों ने मुझको सर्व दिया। शब्द दिए मुझको कविता के, और तुम्हारे जैसा पर्व दिया। मोह की धुन में मन बावरा बस, गीत प्रेम के गुनगुनाता रहा। अगले जन्म तुम मेरी बनना, इस आस में जीवन बीत रहा। क्या समझेंगे लोग यहाँ के, फ़ौजी दिल की बातों को। रातों से लंबे दिन लगते हैं, और जिम्मेदारी की रातों को। स्मृति में तुम्हारी ये मन मेरा, दिन रात की ड्यूटी सींच रहा। अगले जन्म तुम मेरी बनना, इस आस में जीवन बीत रहा। कभी तो सुनेगा कोई हमारी , मुझको है ये आस बहुत। धीरे-धीरे अब जान निकलती, आती नही अब सांस बहुत। अपना था लक्ष्य एक,  कोई और हमसे जीत रहा। अगले जन्म तुम मेरी बनना, इस आस में जीवन बीत रहा। (सेना शिक्षा अनुदेशक मान सिंह कश्यप रामपुर

मानव और पर्यावरण

ए-मानव बता अब क्या कहूं, दिन कहूं या रात कहूं। बिन मौसम की बरसात कहूं, ख़ुशी कहूं या गम कहूं। बिन तेरे ए-हयात, मानव को अब क्या कहूं। मर्ज कहूं,या प्रकृति बहार कहूं, दुःख कहूं मानव मन का,या त्यौहार कहूं। पर्यावरण संतुलन कहूं, या मानव का संहार कहूं। कैद से आने का इंतज़ार कहूं, या प्रकृति का सोलह श्रृंगार कहूं। ए-मानव बता अब क्या कहूं, दिन कहूं या रात कहूं। मानव को,कोरोना का रोना कहूं, या सजती प्रकृति को सोना कहूं। ईश्वर का श्राप कहूं, या पर्यावरण का अभिशाप कहूं। तेरा तुझको अभिमान कहूं, या ईश्वर का वरदान कहूं। मानव तेरी गलतियों को, देख मैं इस प्रकार कहूं। मानव को बड़ा घमंड था, सर पर पाप का प्रचंड था। अपने आप में उदंड था, मानवता को कर रहा खंड-खंड था। प्रकृति सारी त्रस्त थी, सड़कें भी सारी व्यस्त थी। विश्व के जंगलों में लगी आग थी, हवाओं में फ़ैली जहरीली ख़ाक थी। संसार में कोलाहल का स्वर था, खतरे में पर्यावरण का घर था। विधु के जैसे चेहरे थे, धरा के दुःख दर्द बड़े गहरे थे। अचानक से फिर एक संकट आया, हयात का अंतिम पैग़ाम लाया। पूरे लोक को खूब डराया, ये देख विज्ञान