स्त्री

संसार की अज़ब रचना है स्त्री,
एक क़िताब की तरह होती हैं स्त्री।
सभी की अपनी-अपनी जरूरतें,
ज़िन्दगी में बन जातीं है स्त्री।

कोई न समझ सके वो,
गणित वाली क़िताब हैं स्त्री।
जिसकी जैसी ज़रूरत,
बैसी क़िताब हैं स्त्री।

कभी नीरस सा उपन्यास,
कभी प्रेमचंद की कहानी है स्त्री।
कभी शेक्सपीयर का ड्रामा,
कभी कौटिल्य का अर्थशास्त्र हैं स्त्री।

किसी के लिए रद्दी वाली,
फ़िजूल की क़िताब हैं स्त्री।
किसी के लिए ज़िन्दगी के,
हसीन और रंगीन पन्ने हैं स्त्री।

किसी के घर के पुस्तकालय में,
संजोकर रखी क़िताब हैं स्त्री।
किसी बड़े लेखक के कविता के,
सुन्दर और मनमोहक लफ्ज़ हैं स्त्री।

कुछ के लिए मंदिर में रखी,
पवित्र वेद पुराण की क़िताब हैं स्त्री।
किसी के लिए पाक क़ुरान,
और बाईबल की क़िताब हैं स्त्री।

सच कहें तो संतो की वाणी,
कबीर के दोहे जैसी सरल हैं स्त्री।
पढ़ता नही कोई मन की आँखों से,
पढ़ने पर समझ में आती हैं स्त्री।

जो भावनाओं को समझता है इनकी,
जीवन में उसके उतर जातीं हैं स्त्री।
छुए तन में एक अनछुआ मन लिए,
किसी कोने में पढ़ी क़िताब हैं स्त्री।

(मान सिंह कश्यप रामपुर उ०प्र०)

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