मज़बूर-मजदूर करोना वायरस का मजदूरों पर प्रभाव

मज़बूर-मजदूर

माना कि मज़दूर थे ,
अपने शहर से दूर थे।
घर चलाने के लिए वो,
दूर जाने को मज़बूर थे।

बेरोज़गारी की बजह से,
अपने परिवार से दूर थे।
मालिक और नेता सभी,
अपनी ख़ुशी में मग़रूर थे।

आख़िर कब तक भटकते रहेंगे,
राजनीति के अंधियारों में।
सूरज जैसी रौशनी भर दो,
कोई तो इनके जीवन के सितारों में।

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स्याह रात भर कितनों की ज़िंदगी,
मचलती है सड़कों पर नंगे बदन।
इनके परिवारों से मिलाकर इन्हें,
कोई तो कर दो इनको मग्न।

क्यों ग़रीबी मुक्त भारत का नारा,
नेता देतें हैं अनेक सेमिनारों में।
सपनों में अमीर होते-होते गरीब,
बिक चुकें है पथ के बाज़ारों में।

एक ज़माना गुज़र गया उन्हें,
घर का बना खाना खाने में।
माँ के साथ रात को बैठकर,
जीवन की सारी बातें बतलाने में।

आज के कठिन दौर में,
शहरों से निकाला मक्कारों ने।
बेबसी में मज़बूर-मज़दूर,
चल दिए पैदल ही अंगारों में।

कब तक थमेगा ज़िन्दगी का दौर,
कब तक कितना पैदल चलेंगे और।
इनकी भी मजबूरियों पर,
साहब क्यों नही करते गौर।

ग़म तो बहुत हैं पथ में इन्हें,
चलो मिलकर हौसला बढ़ाएं बेचारों में।
नयनों में हैं अश्क इनके,
दीपक बन रौशन करें अंधियारों में।

कुछ स्कंधों पर अपने बड़े बुजुर्ग,
और बच्चों की लाशें ढो रहे हैं।
कुछ घर वालों से मिलने की,
आस में बिन आंसू के रो रहे हैं।

इन मजदूरों की ज़िंदगी से,
दुःख दर्द क्यों नही जाते।
ठहरे थे जो कुछ दिन शहर,
इतना चलने के बाद गांव उनके क्यों नही आते।

कितने ही अपनों से मिलने की,
चाहत में मिटे जा रहें हैं।
बच्चे,बूढ़े, महिला,जवान सभी ,
लम्बी दूरी तक चले जा रहे हैं।

सूखी आँखों से कब तक,
अपने जीवन के सपनों को सजायेंगे।
शायद यह मज़दूर अब,
शहर न बापस आएंगे।

लिख कर इनकी पीड़ा को,
योगदान दिया है युवा हज़ारों ने।
इस देश के सच्चे,
देश प्रेमी और कलमकारों ने।

(मान सिंह कश्यप रामपुर उत्तर प्रदेश)

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