मानव और पर्यावरण


ए-मानव बता अब क्या कहूं,
दिन कहूं या रात कहूं।
बिन मौसम की बरसात कहूं,
ख़ुशी कहूं या गम कहूं।
बिन तेरे ए-हयात,
मानव को अब क्या कहूं।
मर्ज कहूं,या प्रकृति बहार कहूं,
दुःख कहूं मानव मन का,या त्यौहार कहूं।
पर्यावरण संतुलन कहूं,
या मानव का संहार कहूं।
कैद से आने का इंतज़ार कहूं,
या प्रकृति का सोलह श्रृंगार कहूं।
ए-मानव बता अब क्या कहूं,
दिन कहूं या रात कहूं।
मानव को,कोरोना का रोना कहूं,
या सजती प्रकृति को सोना कहूं।
ईश्वर का श्राप कहूं,
या पर्यावरण का अभिशाप कहूं।
तेरा तुझको अभिमान कहूं,
या ईश्वर का वरदान कहूं।
मानव तेरी गलतियों को,
देख मैं इस प्रकार कहूं।
मानव को बड़ा घमंड था,
सर पर पाप का प्रचंड था।
अपने आप में उदंड था,
मानवता को कर रहा खंड-खंड था।
प्रकृति सारी त्रस्त थी,
सड़कें भी सारी व्यस्त थी।
विश्व के जंगलों में लगी आग थी,
हवाओं में फ़ैली जहरीली ख़ाक थी।
संसार में कोलाहल का स्वर था,
खतरे में पर्यावरण का घर था।
विधु के जैसे चेहरे थे,
धरा के दुःख दर्द बड़े गहरे थे।
अचानक से फिर एक संकट आया,
हयात का अंतिम पैग़ाम लाया।
पूरे लोक को खूब डराया,
ये देख विज्ञान भी घबराया।
मानव यहाँ बहां मरने लगा,
अपने आपको घरों में भरने लगा।
इच्छाओं को छोड़ने लगा,
प्रकृति से मुँह मोड़ने लगा।
हाथ मिलाने से भी डरने लगा,
फिर बिना मिले ही मरने लगा।
सारे मानव अपने घरों में हैं बन्द,
समीर में आने लगी है सुगन्ध।
जीव जन्तुओं के वन में हैं आनन्द,
सभी नदियाँ हो गई हैं स्वच्छन्द।
जीव सभी वनों में हैं मस्त,
वातावरण भी हो गया है स्वस्थ।
ख़ग स्वरों में गुनगुना रहे हैं,
सभी मानव घरों में खा रहे हैं।
पुष्पों पर तितलियां मंडरा रही हैं,
मधुमखियां शहद बना रही हैं।
बेलें वृक्षों पर छा रही हैं,
लताएँ सभी मुस्कुरा रहीं है।
गगन भी हो गया है अब साफ़,
वसुंधरा पर कोरोना ने ऐसी छोड़ी छाप।


Written by : Man singh kashyap

Comments

Popular posts from this blog

QUIZ FOR NET EXAM PAPER 1

हाँ मैं भी किसान हूँ