बेटियाँ



ज़िम्मेदारी के बोझ तले,
दब रही हैं आजकल बेटियाँ।
नम आँखों से फ़ोन पर,
पीहर में हँसकर बात करती हैं बेटियाँ।
हुआ करती थीं कभी माँ-बापू की जान,
आज अकेले ही सब दुःख सहती हैं बेटियाँ।
मन पीहर में शरीर ससुराल में,
ये कभी जताती नही हैं बेटियाँ।
पीहर आने के लिए ,
आजकल कितनी तरसती हैं बेटियाँ।
घर गृहस्थी बसाने में ही,
दिन रात लगी रहती हैं बेटियाँ।
ससुराल की सभी परेशानी,

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क्यों चुपचाप सहती हैं बेटियाँ।
क्यों अपनी इच्छाओं का गला घोटकर,
संस्कारी बन जाती हैं बेटियाँ।
कभी बेटों को भी सिखाओ संस्कार,
मान मर्यादा के लिए जान गवाती हैं बेटियाँ।
कर लेते हैं मस्ती और पार्टी बेटे,
घर से भर क़दम भी नही रखती हैं बेटियाँ।
दिन में आराम कर लेते हैं बेटे,
दो मिनट सुस्ताती भी नही हैं बेटियाँ।
पीहर में कुछ हो जाए तो,
सब कुछ छोड़ घर आती हैं बेटियाँ।
अफ़सोस! कितना कुछ सह कर,
चुपचाप दुनिया से चली जाती हैं बेटियाँ।

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