यादों का दौर
वो नब्बे का दशक कितना सुहाना था,
एक ख़त का ही तो जमाना था।
न फेसबुक न व्हाट्सएप,
सब तरफ खुशियों को आना था।
हाथ में तख़्ती कपडे का बस्ता,
कभी ख़ुशी तो कभी मार से स्कूल जाना था।
लड़ना,झगड़ना फिर मिल जाना था,
वो दोस्ती का मौसम सुहाना था।
कहीं चुपके से तकते दो नयन,
दिल उन नयनों का दीवाना था।
वो नब्बे का दशक कितना सुहाना था,
वस एक ख़त का ही तो जमाना था।
गली में मिलीं अचानक नज़रें,
उन नज़रों को देख भागकर छुप जाना था।
वो बचपन वाले खेल में,
उसे हर दफ़ा बचाना था।
विद्यालय से निकल जब स्कूल में आया था,
छोटे से ह्रदय ने जोर का झटका खाया था।
देखकर उसको स्कूल में मन हर्षाया था,
लगा देखने नयनों को देखकर चैन आया था।
चला नही ये सिलसिला ज़्यादा लम्बा,
किसी और ने उस पर अपना रौब जमाया था।
याद हैं मुझको आज भी,
उसके लम्बे केश और किसी को ढूंढते नयन।
सोच कर उस दौर को ,
क्यों ह्रदय हो जाता है बेचैन।
जाते-जाते उसने इशारों से बतलाया था,
बनोगे कुछ ज़िन्दगी में मुझको समझाया था।
कोई कमी अब न बाकी है,
ख्याब न कोई है अब अधूरा।
फिर भी उसकी यादों का,
हर दिन लगता है एक नया सवेरा।
व्याकुल होकर मन कभी करता है,
मैं भी करूँ उससे एक मुलाकात।
डर रहता है अब हमेशा कहीं,
पड़ न जाएं उसके पति के मुक्का लात।
वो यादों का दौर भी कितना सुहाना था,
जब "मान" का भी कोई दीवाना था।
(मान सिंह कश्यप रामपुर उ०प्र०)
👌
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