एक ज़माना

एक जमाना वह था जब हम आग माँग कर लाते थे ।
उसी आग को फूंक - फूंक कर , घर की आग जलाते थे।।
पढने के लिए दीपक था सहारा ,कभी लालटेन जलाते थे।
उसकी बत्ती घुमा - घुमा कर , मुश्किल से काम चलाते थे।।
गेहूँ की रोटी बड़ी चीज़ थी , बडे़ बुजुर्ग ही खाते थे।
दाल भात मेहमान नवाजी , बाकी सब दलिया खाते थे।।
बथुआ सरसों और पालक , यही तो गाँव में होता था।
दूध, दही और छाज , हर घर में तब मिलता था ।।
मक्के की रोटी पूड़ी की दावत, बडे़ दिनों में बनती थी।
 धान का भात , देशी घी और धनिये की चटनी बनती थी।।
स्कूल से आकर खाना खाकर , फिर गाय भैस चराते थे।
साँझ को माँ बाबू जी के साथ, घास काटकर लाते थे ।।
कितनी खुशी रहती भी हमको पापा के साथ बाजार जाने की ।पकौड़ी , आलू चाट और जलेबी खाने की ।।
दूर बसे हैं अपने अब आसानी से घर जा भी नही सकते है।
 घर और मित्रों की यादों  बस, अब के बल आखं भिगो सकते हैं।।
                                                                       ~ मान सिंह




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